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आ न॒ इळा॑भिर्वि॒दथे॑ सुश॒स्ति वि॒श्वान॑रः सवि॒ता दे॒व ए॑तु। अपि॒ यथा॑ युवानो॒ मत्स॑था नो॒ विश्वं॒ जग॑दभिपि॒त्वे म॑नी॒षा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā na iḻābhir vidathe suśasti viśvānaraḥ savitā deva etu | api yathā yuvāno matsathā no viśvaṁ jagad abhipitve manīṣā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। नः॒। इळा॑भिः। वि॒दथे॑। सु॒ऽश॒स्ति। वि॒श्वान॑रः। स॒वि॒ता। दे॒वः। ए॒तु॒। अपि॑। यथा॑। यु॒वा॒नः॒। मत्स॑थ। नः॒। विश्व॑म्। जग॑त्। अ॒भि॒ऽपि॒त्वे। म॒नी॒षा ॥ १.१८६.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:186» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले एकसौ छयासी सूक्त का आरम्भ है। इसके आरम्भ से विद्वानों का विषय कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप जैसे (विश्वानरः) सब प्राणियों को पहुँचानेवाला अर्थात् अपने अपने शुभाऽशुभ कर्मों के परिणाम करनेवाला (देवः) देदीप्यमान अर्थात् (सविता) सूर्य के समान आप प्रकाशमान ईश्वर (सुशस्ति) सुन्दर प्रशंसाओं से (अभिपित्वे) सब ओर से पाने योग्य (विदथे) विज्ञानमय व्यवहार में (विश्वम्) समग्र (जगत्) जगत् को प्राप्त है वैसे (इडाभिः) अन्नादि पदार्थ वाणियों के साथ (नः) हम लोगों को (आ, एतु) प्राप्त हो आवे, हे (युवानः) यौवनावस्था को प्राप्त तरुण जनो ! (यथा) जैसे तुम (मनीषा) उत्तम बुद्धि से इस व्यवहार में (मत्सथ) आनन्दित होवो वैसे (नः) हमको (अपि) भी आनन्दित कीजिये ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परमात्मा पक्षपात को छोड़के सबका न्याय और सभों में समान प्रीति करता है, वैसे विद्वानों को भी होना चाहिये। जैसा युवावस्थावाले पुरुष अपने समान मन को प्यारी युवती स्त्रियों के साथ विवाह कर सुखयुक्त होते हैं, वैसे विद्वान् जन विद्यार्थियों को विद्वान् कर प्रसन्न होते हैं ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयः प्रोच्यते ।

अन्वय:

हे विद्वन् भवान् यथा विश्वानरो देवः सविता सुशस्त्यभिपित्वे विदथे विश्वं जगत् प्राप्तोऽस्ति तथेळाभिर्न आ एतु। हे युवानो यथा यूयं मनीषाऽस्मिन् सत्ये व्यवहारे मत्सथ तथा नोऽस्मानप्यानन्दयत ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (इळाभिः) अन्नादिभिर्वाग्भिस्सह वा (विदथे) विज्ञानमये व्यवहारे (सुशस्ति) सुष्ठु प्रशंसिताभिः। अत्र सुपां सुलुगिति भिसो लुक्। (विश्वानरः) यो विश्वानि सर्वाणि भूतानि नयति सः (सविता) सूर्यइव स्वप्रकाशमान ईश्वरः (देवः) देदीप्यमानः (एतु) प्राप्नोतु (अपि) (यथा) (युवानः) यौवनावस्थां प्राप्ताः (मत्सथ) आनन्दत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नः) अस्मान् (विश्वम्) सर्वम् (जगत्) (अभिपित्वे) अभितः प्राप्तव्ये (मनीषा) प्रज्ञया ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा परमात्मा पक्षपातं विहाय सर्वेषां न्यायं करोति सर्वेषु तुल्यां प्रीतिं च तथा विद्वद्भिरपि भवितव्यं यथा युवानः स्वतुल्याभिर्हृद्याभिर्युवतीभिस्सह विवाहं कृत्वा सुखयन्ति तथा विद्वांसो विद्यार्थिनो विदुषः कृत्वा प्रसन्ना भवन्ति ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा परमात्मा पक्षपात सोडून सर्वांचा न्याय करतो व सर्वांना समान प्रीती करतो, तसे विद्वानांनीही असावे. जसे युवावस्थेतील पुुरुष आपल्याप्रमाणे प्रिय युवती स्त्रियांबरोबर विवाह करून सुखी होतात. तसे विद्वान लोक विद्यार्थ्यांना विद्वान करून प्रसन्न होतात. ॥ १ ॥